मर्मज्ञान की उपादेयता
मर्म विदों के अनुसार शलयहर्ता को शस्त्रकर्म , मर्मों को बचाकर ही करना चाहिए क्योंकि मर्म समीप में हुए अभिघात से मारक होते हैं | अतः मर्म स्थान को शल्यकर्म के अनन्तर प्रयत्न पूर्वक बचाना चाहिए | हात- पैर की सिरा के कट जाने से कटे प्रान्त सिकुड़ जाते हैं , जिससे रक्तस्राव अधिक नहीं हो पाता है | आत्यायिक स्तिथि उत्पन होने पर भी मनुष्य की मृत्यु नहीं होती है , जैसे- शाखा कटने पर भी वृक्ष सूखता नहीं है |
मर्मों में सोम वायु , तेज, रज, सत्व, तम और आत्मा निवास करतें हैं | अतः मर्मों पर आघात पँहुचाने से प्राणी जीवित नहीं रहते हैं अष्टांग ह्रदयकार के अनुसार जिस स्थानों के पीड़ित होने से नए प्रकार की वेदनाएं एवं कम्पन उत्तन होते हैं वह स्थान मर्म कहलाते हैं | मर्म के विद्ध होने या आघात लगने से सामान्यतः देह की संज्ञा नष्ट हो जाती हैं | शरीर अथवा अंग विशेष में सुप्तता (सुन्नता ), भारीपन, मूर्छा , शीतलता की इच्छा, स्वेद, वमन, श्वास अदि लक्छण पैदा हो जाते हैं | यदि मर्मो के समीप के स्थान पर छेदन, भेदन, अभिघात, दहन या दारण कर्म होतें हैं तो उनसे उत्पंन लक्छण मर्मोंघात सदृश होते है | मर्म पर चोट लगने पर ऐसा नहीं होता है कि हानि बिल्कुल न हो | मर्म को क्छति पहुंचने पर मृत्यु अथवा वैकल्प सुनिस्चित है | मर्मस्थानो पर होने वाले नानाविधि विकार प्रायः भली प्रकार चिकित्सा करने पर भी बड़ी कृच्छता से ठीक होतें हैं |
इनका उपचार जोड़ों के दर्द, रक्त संचार में सुधार, और ऊर्जा के संतुलन को बनाए रखने में सहायक होता है।